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स्ती॒र्णा अ॑स्य सं॒हतो॑ वि॒श्वरू॑पा घृ॒तस्य॒ योनौ॑ स्र॒वथे॒ मधू॑नाम्। अस्थु॒रत्र॑ धे॒नवः॒ पिन्व॑माना म॒ही द॒स्मस्य॑ मा॒तरा॑ समी॒ची॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

stīrṇā asya saṁhato viśvarūpā ghṛtasya yonau sravathe madhūnām | asthur atra dhenavaḥ pinvamānā mahī dasmasya mātarā samīcī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्ती॒र्णाः। अ॒स्य॒। स॒म्ऽहतः॑। वि॒श्वऽरू॑पा। घृ॒तस्य॑। योनौ॑। स्र॒वथे॑। मधू॑नाम्। अस्थुः॑। अत्र॑। धे॒नवः॑। पिन्व॑मानाः। म॒ही इति॑। द॒स्मस्य॑। मा॒तरा॑। स॒मी॒ची इति॑ स॒म्ऽई॒ची॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:1» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:14» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (स्तीर्णाः) शुभगुणों से आच्छादित (विश्वरूपाः) नाना स्वरूपयुक्त (संहतः) एक हो रहीं (पिन्वमानाः) सेवन करती हुई (धेनवः) गौवें (अत्र) यहाँ (अस्य) इस व्यवहार के बीच (घृतस्य) जल के (योनौ) आधार में (मधूनाम्) मधुर पदार्थों की (स्रवथे) प्राप्ति के निमित्त (अस्थुः) स्थिर होती हैं वैसे (समीची) अच्छे प्रकार प्राप्त होने (मही) सत्कार करने योग्य (मातरा) पिता-माता (दस्मस्य) दुःख नष्ट करनेवाले बालक के पालनेवाले होते हैं ॥७॥
भावार्थभाषाः - जैसे नदी और समुद्र मिलकर रत्नों को उत्पन्न करते हैं, वैसे स्त्री पुरुष सन्तानों को उत्पन्न करें ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

यथा स्तीर्णा विश्वरूपास्संहतः पिन्वमाना धेनवोऽत्राऽस्य घृतस्य योनौ मधूनां स्रवथेऽस्थुस्तथा समीची मही मातरा दस्मस्याऽपत्यस्य पालिके भवतः ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्तीर्णाः) शुभगुणैराच्छादिताः (अस्य) व्यवहारस्य मध्ये (संहतः) एकीभूताः (विश्वरूपाः) नानास्वरूपाः (घृतस्य) उदकस्य (योनौ) आधारे (स्रवथे) स्रवणे गमने (मधूनाम्) मधुराणाम् (अस्थुः) तिष्ठन्ति (अत्र) (धेनवः) गावः (पिन्वमानाः) सेवमानाः (मही) पूज्ये महत्यौ (दस्मस्य) दुःखोपक्षयकरस्य (मातरा) जनकजनन्यौ (समीचीः) सम्यगञ्चन्त्यौ ॥७॥
भावार्थभाषाः - यथा नदीसमुद्रौ मिलित्वा रत्नान्युत्पादयतस्यथा स्त्रीपुरुषा अपत्यान्युत्पादयन्तु ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जशा नद्या व समुद्र मिळून रत्ने उत्पन्न करतात, तशी स्त्री-पुरुषांनी संताने उत्पन्न करावीत. ॥ ७ ॥